ए अजनबी आज किस मंज़िल की तलाश मे भटकते हो ?जाने अनजाने कितनी रहो से गुज़रते हो ...
भूत चल चुके तन्हा अब , थोड़ी देर को मेरे पास रुक जाओ ,
चाँद घड़ी को ठहर कर मेरे साथ को महसूस करो,
तुम्हे तो क़यामत तक चलना है ,
क़यामत ही तुम्हारी मंज़िल है,
तुम्हे अपनी मंज़िल को पाना है,
पर यू तो ना छोड़ो मुझे अकेला ,
मेरा जहन दर्दनाक वीराना है .
मुझे भी अपने साथ ले लो ,
मिक कर के नये सफ़र की शुरुवात करते है
वीराने के हम दोनो आदी है
बहुत घूमते रहे हैं दोनो अकेले अकेले ,
हेलो अब साथ चलते हैं,
अब कोई दुविधा मे ना पड़ेंगे ,
कोई चौरस्ता सामने आया तो ,
साथ मिल कर तय कर लेंगे किस मोड़ पर जाना है ,
चार क़दम तो चल कर देख लो मेरे सात ,
मंज़िल सामने है ... इसे हाथ बढ़ा कर पाना है !
Monday, October 22, 2007
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Aabhas
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