रोज़ की टार सूरज उठता है , फिर ढल जाता है
चाँद निकलता है और खो जाता है ,
घड़ी के काँटे चलते रहते हैं ,
टिक-टिक, टिक-टिक समय काटता जाता है ,
सड़कें आबाद होती हैं आर सुनसान भी,
यू ही कुछ ज़िंदगी भी चलती रहती है ,
हर रात आँखे इस आरज़ू मैं बंद होती हैं
अब किसी किरण की आस ना हो , आरज़ू ना हो ,
पर बेवकूफ़ साँसे थमती ही नही .....
बस एक अहसान कर दो खुदाया,
मेरी धड़कन को थाम लो,
सांसो की डोर दूर कान्ही अटका दो की फिर सुलझ ना सके,
भटकते मन को कही तो सुकून मिले,
बेहद तक गया हू रोज़ रोज़ की दुनिया से ,
अब तो जन्नत या जहन्नुम की आस भी नही रही ,
बस एक बार ऐसी नींद की तम्मना है ,
जो आँखो मे यू उतर आए ,
बस एक ऐसा क्वाब देखो जो टूटने ना पाए ...
बढ़ता जाए बढ़ता जाए और बढ़ता चला जाए ...
नावज़ टूट जाए बदन ठंडा पड़ जाए ....
सायद रो भी पड़े कोई उस पल ,
पर उन आसूओं पे मत जाना तुम ,
ले कर मेरे अक्स को कान्ही दूर फेंक आना तुम ,
जन्हा जान सकूँ यॅ बात ...
क्यू जब मार जाए कोई तो याद बहुत आता है ?
तन्हाई से बहतर यॅ जान्हन, मौत क्यू कहलाता है ?
Monday, October 22, 2007
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Aabhas
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