Monday, October 22, 2007

kagaz kee kashti

काग़ज़ की कश्ती से समंदर पार नही होता,
अपनी बदनासीबी पर ऐतबार नही होता,
मरते मरते ज़िंदगी काट रही है,
क्यू कोई मंज़र ख़ुशगवार नही होता,
हज़ारों राह चल कर देखी,
क्यू मेरे रास्ते मे चट्टाने बड़ी हैं,
क्यू कोई पत्थर मील का पत्थर नही होता ?
हांत मे रखे एक नक्शा चल पड़े हैं,
कौन दिशा कौन सी है असमंजस मे हैं,
क्यू भूल भुलैया मे कोई मददगार नही होता ,
काग़ज़ की कश्ती से समंदर पार नही होता ,

आज फिर छलका था सागर,
रूह लाचार पूछ बैठी खुदा से ,
क्या कमी रखी तूने मुझ मे खुदाया ?
क्यू किसी को मुझ से प्यार नही होता ?

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