Monday, October 22, 2007

megh !

तुम मेघ क्यू हो ?
पल भर को आते हो ..
मेरी ख़ुशियों को बढ़ाते हो ,
मेरे दर्द को काम करते हो ,
फिर बीन बरसे ही चले जाते हो ....

मैं सदियों तरसती रहती हूँ,
मेरी प्यास बढ़ती जाती है ,
धरती हूँ ना, तुम्हे आ कर कैसे छू लू ?

सूरज तो रोज़ आता है ,
मुझे जलाता है ...
तुम्हारी याद दिलाता है
और मेरी अगन बढ़ता है ...

मैं प्यासी तड़पति रहती हूँ,
सपनो मैं तुम्हे दूर देख
कुछ पागल सी हो चली हूँ ,

तुम मेरे मेघ हो मैं जानती हूँ,
मगर हवाओं का भरोसा नही मुझे ,
कब नयी दिशा दिखा दे तुम्हे ?
भटक ना जाना कान्ही,
सही राह चलना ,

तुम मेरे मेघ हो, मेरे ही रहना
धरती हूँ नेया बस तुम्हे याद दिलाना चाहती हूँ ,
तुम्हारी आवारगी की भी कायल हूँ मैं ,
पर जुड़ा ना हो जाना मुझ से ...

तुम आते हो,
सूरज को छिपा कर मुझे ढक देते हो ,
पल भर का ही सही साथ पसंद है मुझे तुम्हारा

सूरज क्या है ? गम है ...
तुम्हारा साया मुझ पर ख़ुशी की लहर है ,
मगर मंज़िल मेरी यू तुम्हारा साया तो नही ...

बरसो , और यू बरसो ,
मैं मस्त हो जाऊं, भीग जाऊं
खिल कर नाचू, और झूम जाऊओं
और लोग कह उठे देखो बहार आ गयी है ,...

तुम मेरे मेघ हो,
मुझे धरती होने पर गर्व है ...
नाज़ है तुम पर तुम मेघ हो
तुम्हारे होने से ही तो मैं हूँ ,

तुम मेघ ही राहना और मुझे धरती ही रहने देना

No comments:

Aabhas

अंतरात्मा     का  द्वंद  शांत  नहीं  होता। स्थिरता  और  ठहराव  में  शायद  ज़मीन  आसमान  का अंतर  होता  है।जीवन  स्थिर  हो  भी  जाए  तो , च...